रविवार, 22 जून 2008

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता


पाश की कविताओं से गुजरना...

"प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आया
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया।"
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"जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही सुखदाई होता है।"
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"शब्द जो राजाओं की घाटी में नाचते हैं
जो माशूक की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं
जो मेजों पर टेनिस-बॉल की तरह लुढ़कते हैं
जो मंचों की खारी धरती में उगते हैं–
कविता नहीं होते।"

पंजाबी कविता के जुझारू कवि पाश की कविताओं से गुजरना एक अनौखे अनुभव से गुजरना है। पाश की कविताएं मैंने मूल पंजाबी में भी पढ़ीं और उनका हिंदी अनुवाद भी। फरवरी 2008 में नई दिल्ली में आयोजित “विश्व पुस्तक मेले” में सुभाष परिहार द्वारा अनूदित पाश की समग्र कविताओं की किताब “अक्षर-अक्षर” देखने और खरीदने का अवसर मिला। यह किताब पाश की पूरी कविता-यात्रा को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण किताब है(प्रकाशक – परिकल्पना प्रकाशन, डी–88, निरालानगर, लखनऊ–226 006)। सुभाष परिहार जाने-माने लेखक और अनुवादक हैं। इनके किए अनुवाद मूल रचना के बहुत पास होते हैं। इनके अनुवादों में मूल भाषा की गंध और रचना की आत्मा सहज ही अनुभव की जा सकती है। एक अच्छा अनुवाद मूल रचना जैसा ही स्वाद प्रदान करता है। “सेतु साहित्य” के इस अंक में “अक्षर-अक्षर” पुस्तक से पाश की तीन कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं–

पाश की तीन कविताएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष परिहार
सभी चित्र : अवधेश मिश्र

मैं अब विदा होता हूँ

मैं अब विदा होता हूँ
मेरी दोस्त, मैं अब विदा होता हूँ
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
जिसे तू सारी उम्र पढ़ती रह सके।

उस कविता में
महकते हुए धनिये का ज़िक्र होना था
ईखों की सरसराहट का ज़िक्र होना था
और सरसों की नाजुक शोखी का ज़िक्र होना था
उस कविता में पेड़ों से टकराती धुन्ध
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झागों का ज़िक्र होना था
और जो भी शेष
मैंने तेरे जिस्म में देखा
उस सबकुछ का ज़िक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों के ‘घट्ठों’ ने मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों के नर्म शाल में से
सेंक की लपटें उठनी थीं।

उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सारे रिश्तों के लिए
बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे नक़्शे से निपटना
और अगर मैं लिख भी लेता
वो शगनों भरी कविता
तो उसने यूँ ही दम तोड़ देना था।

तुझे और मुझे छाती पर बिलखते छोड़ कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही शक्तिहीन हो गयी है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आये हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों से युद्ध करना बहुत ज़रूरी हो गया है।

युद्ध में
हर चीज़ को बड़ी आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह...
और इस हालत में
मेरे चुम्बन के लिए बढ़े हुए होंठों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा
या तेरी कमर की लहरन को
सागर के साँस लेने की तुलना देना
बहुत हास्यास्पद-सा लगना था
सो, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुझे,
तेरी मेरे आँगन में बच्चे खिला सकने की ख़्वाहिश को
और युद्ध की समुचता को
एक ही क़तार में खड़ा करना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ
और मैं अब विदा होता हूँ।

मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्ठी की भाँति तपने वाले
अपने गाँव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चाँदनी में रस भरे ‘टोक’¹ के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना बहुत संगीतमय होता है
हाँ, हमें याद रखना पड़ेगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही सुखदाई लगता है।

मैं इस विदाई की घड़ी में धन्यवाद करना चाहता हूँ
उन सब हसीन चीज़ों का
जो हमारी मुलाकातों पर तम्बू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने पर हसीन हो गयीं
मैं धन्यवाद करता हूँ
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी पवन का
जो मेरा दिल लगाये रखती रही तेरा इन्तज़ार करते
आढ़ पर उगे हुए रेशमी घास का
जो तेरी रूमकती हुई चाल के आगे सदा बिछ-बिछ गया
‘टींडों’ में से झड़ी कपास का
जिन्होंने कभी कोई एतराज़ न किया
और सदा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गयी
ईख पर तैनात पिद्दियों का
जिन्होंने आने-जाने वाले की ख़बर रखी
जवान हुए गेहूं का
जो हमें बैठे न सही, लेटे हुए तो ढँकता रहा।

मैं धन्यवाद करता हूँ सरसों के छोटे-छोटे फूलों का
जिन्होंने मुझे कई बार बख़्शा अवसर
पराग-केसर तेरे बालों में से झाड़ने का
मैं मनुष्य हूँ, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ
और उन सब चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाये रखा
मेरे पास बहुत शुक्राना है
मैं धन्यवाद करना चाहता हूँ।

प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को सहते हुए
अपने आप को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी हुई गोली का
किसी झोंपड़ी में पड़े रहकर
ज़ख़्म भरने वाले दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है।
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूँज जाना
जीने का यही सलीका होता है।

प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आएगा
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया।

जिस्मों का रिश्ता समझ सकना
ज़िन्दगी और नफ़रत में कभी लीक न खींचना
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत सूरमगति का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूँ।

तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक़्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुम्बनों ने कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा
कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे साँचे में ढाला
तू यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके
कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना मेरी दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना।
––––––––
¹ रस निकाल लेने के बाद बचा ग्न्ने का छिलका।
वफ़ा

वर्षों तड़पकर तेरे लिए
मैं भूल गया हूँ कब से
अपनी आवाज़ की पहचान
भाषा जो मैंने सीखी थी, मनुष्य जैसा लगने के लिए
मैं उसके सारे अक्षर जोड़ कर भी
मुश्किल से तेरा नाम ही बना सका
मेरे लिए वर्ण अपनी ध्वनि खो बैठे बहुत देर से
मैं अब लिखता नहीं–
तेरे धुपहले अंगों की मात्र परछाईं पकड़ता हूँ
कभी तूने देखा है– लकीरों को बगावत करते ?
कोई भी अक्षर मेरे हाथों से
तेरी तस्वीर ही बनकर निकलता है
तू मुझे हासिल है(लेकिन) कदम भर की दूरी से
शायद यह कदम मेरी उम्र से नही
मेरे कई जन्मों से भी बड़ा है
यह कदम फैलते हुए लगातार
घेर लेगा मेरी सारी धरती को
यह कदम माप लेगा मृत आकाशों को
तू देश में ही रहना
मैं कभी लौटूँगा विजेता की तरह तेरे आँगन में
इस कदम को या मुझे
ज़रूर दोनों में से किसी को क़त्ल होना पडे़गा।

कोई तो टुकड़ा

ज़िन्दगी !
तू मुझे यूँ बहलाने की कोशिश मत कर
ये वर्षों के खिलौने बहुत नाजुक हैं
जिसे भी हाथ लगाऊँ
टुकड़ों में बिखर जाता है।
अब इन मुँह चिढ़ाते टुकड़ों को
उम्र कैसे कह दूँ मैं
सखी, कोई तो टुकड़ा
वक़्त के पाँव में चुभ कर
फ़र्श को लाल कर दे !
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अनुवादक परिचय :
जन्म : 12 अगस्त 1953, कोट कपूरा(पंजाब)
शिक्षा : एम. ए.(कला का इतिहास और इतिहास), पीएच.डी।
अंग्रेजी में पांच पुस्तकें प्रकाशित। इंग्लैंड, इटली, नीदरलैंड, पाकिस्तान तथा भारत की विभिन्न शोध पत्रिकाओं में 40 शोध पत्र प्रकाशित। अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी तथा फारसी की पत्र-पत्रिकाओं में 250 से अधिक लेख प्रकाशित। पाश की समस्त कविताओं का हिंदी अनुवाद “अक्षर-अक्षर” प्रकाशित।
सम्प्रति : प्रभारी, इतिहास विभाग, सरकारी ब्रिजिन्दरा कॉलेज, फरीदकोट(पंजाब)
सम्पर्क : पो.आ. बॉक्स 48, गली नंबर–2, ग्रीन इन्कलेव, कोट कपूरा–151204
दूरभाष : 01635–222418
09872822417
ई मेल : sparihar48@yahoo.co.in

10 टिप्‍पणियां:

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

SARAHANEEY QADAM

योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishna ने कहा…

बहुत अच्छी कविताएं हैं, अनुवाद भी सुंदर है।
अनुवादक और आपको भी प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई।

बेनामी ने कहा…

Subhash Ji,

Paash Ki Kavitayen lajawab hein. Pahle bhi pad chuka hoon lekin baar-baar padne ko dil karta hai. Iske liye aap aur anuvadak dono hi badhai ke patra hein. Aise shandar prayas jaari rakhiye.

Ramesh Kapur

बेनामी ने कहा…

Priy Subhash jee,
Main kavi Pash kee teeno kavitayen padh gaya hoon.
Ye kavitayen mool punjabee mein bhee padh chuka
hoon main.Pash kee kavitayen padhnaa goya
zindgee ko padhnaa hai.Anuvaad khoob hai.Badhaee.
Pran Sharma

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय सुभाष ,

पॉश की कविताओं का सुभाष परिहार द्वारा किया अनुवाद और तुम्हारी प्रस्तुति प्रशंसनीय है. पॉश को पढ़ना एक युग से गुजरना है. ऎसे कवि कभी कभी ही जन्मते हैं.

तुम्हे और परिहार को पुनः बधाई.

चन्देल

बेनामी ने कहा…

PRIYA BHAI NEERAV JI, NAMASKAR
AAPKO BARABAR PADTA AA RAHA HOON. AAPKA BLOG BHI DEKHTA HOON. ACCHA LAGTA HAI. AAPNE PAASH KI KAVITAYIOON KA HINDI MEIN ANUVAD KIYA HIA, MEIN USSE APNI PATRIKA PARVAT RAAG MEIN PARKASHIT KARNA CHHAHATA HOON. ASHA HAI ANUMATI DENGE.
SANAND HONGE.
WITH REGARDS

GURMIT BEDI,
DISTRICT PUBLIC RELATIONS OFFICER,
UNA-174303
( HIMACHAL PRADESH )
094180-33344

बेनामी ने कहा…

प्रिय सुभाष ,
आपके सभी ब्लाग्स पर आना शुरू किया है ! ब्लाग्स अच्छे लगे ! विशेष कर, अनूदित साहित्य को इस माध्यम से प्रस्तुत करने की आपकी अवधारणा ! मेरे विचार से "अनुवाद" बहुभाषी संसार का सबसे पहला और सबसे अन्तिम पुण्यकर्म है ! अपनों से परिचय की इस पहल के लिए साधुवाद !

और हाँ .... मैं आपकी इस चिंता से सहमत हूँ कि ब्लागिंग और "मशरूम कल्चर" ( "इसे देशज रूप में लिखा हुआ मानकर बांचें") में अन्तर किया ही जाना चाहिए !

शुभकामनाओं सहित

अली
ummaten@gmail.com

बेनामी ने कहा…

Paasji ki kavitaon me se dhaniye ki si khusboo aati hai.acchi rachnaye pesh karne ke liye bdhai.

Chhaya ने कहा…

dear Subhash ji..
shukriya pash ji ki kavitaoun se rubru karwane ka. kya khoob jinadagi ki sachai or pyar ka comparison kiya hai unhone "Main aab vida leta huin" kavita mein....

Chhavi

बेनामी ने कहा…

complete poetry of Paash in different languages and much more about his life and times is available at my blog http://paash.wordpress.com