शनिवार, 25 अगस्त 2007

पुण्य
अणिमेश्वर कौर
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव

“विलैत से कब आए टहल सिंह?”
“हो गये कोई पन्द्रह-बीस दिन। अपना विवाह करवाने आया था, अब कल सुबह की फ्लाइट है मेरी।”
“वाह, भाई वाह! टहल सिंह, अगर मैं गलत नहीं तो यह तेरी तीसरी शादी है।” बात को जारी रखते हुये सरवण पूछने लगा, “भाई यह तो बता, तू जल्दी-जल्दी शादियाँ किये जा रहा है, पहली वाली दो क्या हुआ?”
“होना क्या था, पहली विवाह के बाद इंडिया में ठीक-ठाक थी। जब इंग्लैंड गयी तो सिर फिर गया--- और तलाक हो गया। फिर दूसरी जगह गाँव की लड़की से विवाह करवा लिया। उसे भी गोरों की धरती पर पैर रखते ही पंख लग गये--- रोज लड़ती थी मेरे से ससुरी! कहती थी- तू भी काम किया कर घर का। बस, कुछ महीनों के बाद तलाक हो गया। रहती हैं दोनों अपने-अपने कौंसलों के फ्लैटों में।”
“पर यह बात तो बहुत खराब है टहल सिंह। माँ-बाप बड़ी हसरतों से पालते-पोसते हैं बेटियों को और विलैत में जाकर कुछ और ही हो जाता है।”
इस पर टहल सिंह ने दाढ़ी-मूँछों को संवारते हुये जवाब दिया, “अरे सरवण, तुझे क्या समझ वहाँ की? दुख तो क्या होना है, तलाक लेकर चाहे जितनी बार विवाह करवायें। यह क्या कम है कि गाँव से निकलकर विलैत में जगह मिल गयी। मैं तो निरा पुण्य कर रहा हूँ, नहीं तो गाँव में ही उम्र गल जाती इनकी।” फिर गले को साफ करता हुआ कहने लगा, “भई देखो न, इतनी दूर से किराया-भाड़ा खर्च करके आते हैं यहाँ--- नहीं तो वहाँ क्या लड़कियों का कोई घाटा है? बहुत मिल जाती हैं, पर हम तो यहाँ से ले जाकर निरा पुण्य ही कर रहे हैं।”
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